Thursday 15 June 2017

अल्हड़ तितली

                     
                                                         सौन्दर्यबोध की इस दुनिया में

                    कैसे देख पाओगे किसी के अंदाज को
                             जब धुन लगी हो खुद को धुनने की
                                           जाकर बैठो कभी तो किसी उपवन में
                                       झाँकों अपनी सीमा से परे की दुनिया में
                              है सतत जो गतिशील अपने ही रफ़्तार में
                              धुनने के साथ गुनते भी रहती है अपने गीत
   
                                   
    आत्मसाक्षात्कार के ऐसे पल में


                              जा बैठा प्रकृति की गोद में
                             जब भास्कर के प्रथम किरणों के स्पर्श से
                                                   होते हैं सब स्पंदित ,खोलते हैं चछु
                                                    पवन की मद्धम बयारों का स्पर्श
                             कराता है सवारी अपनी ही दुनिया की
                             नहीं मुमकिन जो अपनी धुन में

                                       नवीन अहसास के प्रकाश पुंज में

                            देखा उस अल्हड़ तितली को
                         अपनी ही धुन में  गुनते हुवे
                                                     पुष्प गुच्छों के बीच में पंखों को फैलाये
                                                    लताओं से कभी इधर तो कभी उधर टकराए
                       फिकर ही न हो खुद का
                      इस पल में जीने में उड़ती हुई

                                      देखा उसे तो जाना जीवन में



                     खुद को जीना है जरूरी खुद को
                     दुनिया तो लगी है अपने हिसाब से
                                                     बांधने को पहचानों के दायरे में
                                                      जैसे बांध दिया है तितली को
                      सौन्दर्य के दायरे में ,छिन ली है
                       उससे उसकी पहचान को
                                 
                                   प्रतिपल परिभाषित इस जगत में

                      भला कैसे दिखेगी तुम्हें उसकी
                      पुष्पों के पीछे की धमाचौकड़ी
                                             भास्कर के साथ उठ कर भ्रमरों ,
                                             मधुमक्खियों संग की अठखेलियाँ
                     इस प्रकृति को  सहेजने का अंदाज
                    देख कर भी कर दोगे अनसुना
                                   
                                       लालच के इस सागर में

                     तुमने देखा है अब तक
                     उसके सुन्दर,रंगीन पंखों को
                                               पुष्पों से रस लेने के अंदाज में
                                               हो गुम इतने की भूल ही गये हो
                     किरण  संग कड़ों के संगम ने लायी है
                     चमक कई बार उस अल्हड़ तितली में

                                      मेरे अंतर्मन के कोने में

                     कहती है ये उठती आवाज
                     है परिभाषा से परे भी कुछ
                                             जीवन के हैं रंग कई
                                             जीने के अंदाज हैं रसमयी
                     है चेहरे पर मुस्कान नई
                     आ बैठी है हथेली पर वो अल्हड़ तितली
                                                         
             

Tuesday 4 April 2017

दिल या दिमाग

शारदीय नवरात्र का आज अंतिम दिन है ,शक्ति के उपासकों के लिये ये बड़ा ही पावन समय होता है जब वे प्रकृति की उस उर्जा की स्तुति एवं आराधना करते हैं जो अपनी सौम्यता के साथ-२ दृढ़ता के लिये भी जानी जाती हैं.शास्त्रों के हिसाब से भगवान शिव को अर्धनारीश्वर कहा गया है क्योंकि उनके अन्दर स्त्री एंवं पुरुष दोनों के रूप विद्दमान हैं पर मुझे लगता है कि शक्ति के साथ भी यही बात लागु होती है.शक्ति,प्रकृति या मां दुर्गा जो अपने आप में अनंत संभावनाओं को समेटें हुवें हैं,उन संभावनाओं का प्रदर्शन कभी भी संपूर्ण तरीके से नहीं किया पर शक्ति ही संपूर्ण ब्रम्हांड में ऐसी रचना है जिसके अन्दर संपूर्ण रचनाएँ,भावनाएं,सृजन,विध्वंश इत्यादि छिपे हुवे हैं.शक्ति की आराधना करने वालों को शक्ति से सीखना चाहिए कि कैसे अनंत उर्जा को संग्रहित करके रखा जा सकता है.
               संपूर्ण विश्व में एक बहस चलती रहती है कि मनुष्य अपने दिल की सुने या दिमाग की क्यूंकि ऐसा माना जाता है कि दिमाग भावुक फैसले लेनें में कमजोर होता है और दिल दृढ फैसले लेने में कमजोर होता है पर फैसले तो हमें लेने ही होते हैं तो किसको सुना जाये मुख्य रूप  से इसी की पड़ताल यह लेख करता है.नारीवादी विचारकों का भी मानना है कि पर्यावरण सरंक्षण के लिये नारीवादी विचारधारा के प्रसार की आवश्यकता है क्यूंकि नारीवाद संरक्षण को प्रोत्साहित करता है.पर संरक्षण करने के लिये हमें भावुक होने के साथ-२ दृढ भी होना आवश्यक है और यहीं पर हमें शक्ति के रूप से प्रेरणा मिलाती है जो हमेशा से संतुलन बनाने के लिये जानी जाती है.मनुष्य को हमेशा दृढ़ता और भावुकता के बीच में संतुलन स्धापित करने का प्रयास करना चाहिए और इस द्वन्द में पड़ने के बजाय कि हम किसकी सुनें उसे यह समझना चाहिए की द्वन्द से सिर्फ विनाश होता है बशर्ते उस विनाश के बाद कुछ नवीन का सृजन हो जाये पर यह तो समय पर निर्भर है इसके बारे में हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते.
      शक्ति की उपासना से हम कई तरह की शिक्षा पा सकते हैं पर हम इस बात को कभी भी नजरंदाज नही कर सकते कि त्रिदेवों के सारे रूपों को खुद में समाहित करने के बावजूद कैसे संतुलन स्थापित करते हुवे शक्ति सारी उर्जाओं का संयोजन प्रस्तुत करती हैं.हमें शक्ति से निर्णय लेने की कला सिखनी चाहिए.बिना भ्रमित हुवे शक्ति हमें यह बतलाती हैं कि दिल और दिमाग के बीच में द्वन्द रखने की जगह हमें संतुलन स्थापित करने पर जोर देना चाहिए इस तरह हम जल्दी एंवं प्रभावी निर्णय लेने में कामयाब हो सकते हैं.हमें यह समझना होगा की द्वन्द स्थापित करने से नकारात्मक उर्जा का फैलाव होता है जबकि संतुलन बनाने से सकारात्मक उर्जा फैलती है जो हमारे शारीरिक व्यवस्था पर अच्छा प्रभाव डालती है.उर्जा के दुरूपयोग और ह्रास की जगह हमें शक्ति से सिख लेते हुवे उसके सदुपयोग पर जोर देना चाहिए.जब हम दिल और दिमाग की बहस में उलझते तो उर्जा का क्षय निश्चित है.
        मनुष्य को अब इस पड़ाव पर आके समझना ही होगा कि उसे द्वन्द से कुछ हासिल नहीं होने वाला बशर्ते वह संतुलन बनाने का प्रयास करे और संघर्ष से बचे.संघर्ष नवीनता की एक आवश्यक प्रक्रिया के रूप में माना जाता रहा है पर संतुलन ने भी नवीनता को प्रदान किया है.हर संघर्ष के बाद भी हमें संतुलन बनाना ही पड़ता है तो संतुलन बनाने का पहला प्रयास खुद से क्यूँ न हो दिल और दिमाग के बीच के संतुलन के रूप में.  

Saturday 7 January 2017

अपराजिता

अपराजिता का मतलब होता है जो कभी भी पराजित न हुआ हो या जिसे कभी भी कोई जीत नहीं पाया हो. हिन्दू धर्म में इसे शक्ति के रूप में देखा जाता है और देवी के रूप में इनकी आराधना की जाती है. अगर हम हिंदी साहित्य की बात करें तो यह शब्द नारी को संबोधित करने के लिये इश्तेमाल किया जाता है. पर जब हम इस शब्द पर गौर फरमाते हैं तो पाते हैं की ये शब्द अपने आप में इतिहास को समेटे है या यूँ कहें की ये शब्द पुरे इतिहास का संक्षिप्त रूप है.इस शब्द ने अपने अन्दर नारी समाज के पुरे इतिहास को छुपा कर रखा है. आदम काल से लेकर अब तक का सारा इतिहास इस १ शब्द के अन्दर ही छुपा हुआ है जिसके अन्दर दमन, शोषण,त्याग, द्वेष,प्रेम,ममता,सृजन,क्रंदन,कल्पना,समर्पण, इत्यादि की मर्मस्पर्शी कथाएं छुपीं हुई हैं. कभी देखिएगा गौर से न आप भी अपने अगल-बगल आपको पूरा इतिहास १ दृश्य में ना मिला तो कहियेगा.
            आग की खोज के बाद  शिकार पर गए उस पुरुष के घर की रक्षा करती हुई ये अपराजिता जो आग से पहले शिकार में साथ जाती थी, उस कल से लेकर बोझ ढोने वाले उस क्रेन के अविष्कार तक आप इस अपराजिता को ही तो पायेंगे. हर नईं खोज इस अपराजिता को पीछे धकेलने का कहीं ना कही प्रयास तो करती ही है जैसे क्रेन की खोज के बाद उसका संचालन पुरुष को दे दिया जाता है और नारी को समझा दिया जाता है की तुम कमजोर हो इसलिए अपनी  ताकत का इश्तेमाल करके बोझ उठाया करो. बात हाश्याद्पद तो है पर है सत्य यकीं नहीं होता तो पलट कर देख लीजिये इतिहास के पन्ने ये पल न मिलें तो कहियेगा. जब धरती से डायनासौर ख़त्म हुवे तो कहा जाता है की किसी उल्का पिंड के गिरने के बाद उनकी प्रजाति ख़त्म हो गई. पर नारी अब भी अपराजित है सामाजिक बंधनों रूपी उल्का पिंडों के बावजूद.
        उल्का पिंडों के बारे में कहा जाता है की ये धरती का हिस्सा नहीं हैं बाहर से आती हैं और इस बाहरी वस्तु ने पूरी प्रजाति को ही खत्म कर दिया. बिलकुल इन्हीं उल्का पिंडों की तरह ये सामाजिक बंधन भी तो बाहरी ही हैं ना, आखिर जब नारी और पुरुष धरती पर आये होंगें तब तो ये नियम नहीं होंगें ना. पर इन नियम रूपी उल्का पिंडों से भी कभी नहीं पराजित हुई नारी और आज भी नदी के जल की तरह निरंतर प्रवाहमान है. जाने कितनी सभ्यताएं आयीं और चलीं गयीं पर १ चीज जो सतत रही वो यह की उन सभ्य्तायों के बीच में कहीं गुम सी थी अपराजिता फिर भी अपने आपको उसने लगातार उभारना जरी रखा और विषमताओं के बावजूद अपना अस्तित्व बना के रखा.हर सभ्यता का पतन हुवा पर १ नारी ही थी जिसने अपने आपको सतत विकास की प्रक्रिया में लगाये रखा और दुसरे के बनाये हुवे नियमों में ढलते हुवे खुद को विकसीत रखना जारी रखा.
                       पर जब २१वीं सदी में भी नारी को संघर्ष करना पड़ता है तो बड़ा दुःख होता है और जब वे प्रताड़ित होती हैं तो आक्रोश पैदा होता है. जाने कब बदलेगी ये मानसिकता और नारीओं के योगदान को समाज समझ पायेगा. आखिर वही हमेशा त्याग क्यूँ करे,वही क्यों प्रताड़ित हो,वही अपनी अग्नि परीक्षा क्यूँ दे, वही अपने कामों का हिसाब क्यों दे. क्या पुरुष समाज को ये दुनिया को नहीं बताना चाहिए की उन्होंने अब तक क्या दिया है इस धरती को. इतनी सभ्यताएं ख़त्म हो गई और सबको पुरुषों ने अपने हिसाब से चलाया था. आज भी गरीबी,आतंकवाद,अपराध,असमानता इत्यादि जैसे मुद्दे हैं तो क्या इसका जवाब पुरुषों को नहीं देना चाहिए.
              जापान ने कोरिया को द्वीतीय विश्व युद्ध की क्षत्तीपूर्ति की राशी का भुगतान किया था और अभी भी कुछ चीजों को लेकर करता है. कल्पना करियेगा अगर महिलाओं ने अपने अधिकारों के हनन को लेकर जिस दिन इस पुरुष समाज से जुर्माना मांग लिया तो क्या ये समाज दे पायेगा. आखिर पुरुष को यह क्यूँ नहीं समझ में आता है की अगर उसे सभ्यता का विकास करना है तो उसे नारी से सीखना होगा. उसे अपने सामन्ती और दम्भी मानसिकता से बाहर आना होगा. उसे समझना होगा की ताकत का मतलब दूसरों के वश्तुओं को हडपना या उनपर अपना प्रभुत्वा दिखाना नहीं होता है वरन उनका सम्मान करना और उनके विकास में मदद करना होता है. अगर ये बात समाज समझ जाये तो निर्भया और बेंगलोर जैसी घटना नहीं होंगीं.
        आखिर कब तक ये अपराजितायें अपना संघर्ष जरी रखेंगी.१ बात याद रखियेगा हर संघर्ष के बाद १ क्रांति हुई है और मुझे नहीं पता की इतिहास में नारी ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये कभी क्रांति की हो. पर कब तक नहीं होगी ये क्रांति जब आप प्रताड़ना रूपी बांध बनायेंगे तो जल रूपी नारी स्वाभाव वो बांध तोड़ेगा जरुर उस दिन क्या-२ तबाह होगा यह देखना रोचक होगा. 

Tuesday 3 January 2017

मेरे अंगने में

नये साल  का आगमन हो चुका है पर अब इस नये साल में वो पहले वाली बात कहाँ रही है जब हमलोग दूरदर्शन नये-२ कार्यक्रम का इंतजार करते रहते थे.पर अब तो लाइव टीवी का जमाना है,आई पैड का दौर है.फ्री डाटा का दौर भी आ चुका है बस बैठे-२ डाटा से दुनिया से जुड़ जाइये बशर्ते आपके मोबाइल की बैटरी चार्ज हो. आपका पेट चार्ज हो या ना हो पर आजके ज़माने में मोबाइल का चार्ज रहना बेहद जरुरी हो गया है. खैर वो सब छोडिये मुद्दे पर आते हैं आज तो कमाल ही हो गया जब टीवी पर सुबह-२ ही पुराने गाने आने लगे और अमिताभ जी के फिल्म का गाना मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है बजने लगा. मेरी तो आत्मा ही प्रसन्न हो उठी तभी किसी ने रिमोट से टीवी का चैनल चेंज कर दिया और टीवी पर से जानकारी मिली की जी न्यूज़ के पत्रकार सुधीर चौधरी के ऊपर पश्चिम बंगाल सरकार ने एफ आई आर दर्ज कराई है दंगो के रिपोर्टिंग के लिये. 
           पुनर्जागरण के ध्वजवाहक बंगाल से जब ऐसी खबर आती है तो बड़ा ही दुःख होता है. ये वही बंगाल है जहाँ से राजाराममोहन राय ने सती प्रथा के विरोध में आवाज उठाई थी, ये वहीँ बंगाल है जहाँ से विवेकानंद जी ने बाहर निकल कर विश्व को हमारे सनातन धर्म का सच्चा साक्षात्कार कराया, ये वही बंगाल है जहाँ से जगदीश चन्द्र बसु जैसे शख्स ने बताया की पौधों में भी जान होती है पर इसी बंगाल में ममता बनर्जी जी शायद भूल गयी हैं की जिनमें जान होती है वो संवाद जरुर करते हैं और मानव समाज में संवाद के लिये अभिव्यक्ति की आजादी होना अत्ति आवश्यक है वरना संवाद अर्थहीन हो जाता है.
         ममता बनर्जी जी शायद संविधान को ही भूल गयीं हैं या वह जानबूझकर ऐसा ढोंग कर रही हैं.वह भारत के संघीय ढांचे से इतर कोई नयी व्यवस्था का जन्म करना चाहती हैं शायद इसीलिए उन्हें मिलिट्री की ड्रिल सत्ता परिवर्तन की साजिश लगती है और अपने पार्टी के नेताओं पर लगने वाले आरोप केंद्र की साजिश. ममता जी शायद कहना चाहतीं हैं की मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है.
          राजनीती की दुनिया में अब ये १ नया वाक्य बनके उभरा है जिसमें अब सब पुछ रहें हैं कि मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है.आप राष्ट्रवादीयों की नई फ़ौज को हि देख लीजिये. भारत में ही इनका ग्रेगरियन कैलेंडर आधारित नववर्ष का विरोध यही तो कहता है की मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है. आप चाहें तो अमेरिका को ही देख लें, वहां के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का प्रवासियो के प्रति बयान भी तो यही दर्शाता है. चाहे मामला ब्रेक्सिट का हो या मामला जर्मनी में सीरिया के लोगों का हो हर जगह अब यही बोल चल रहे हैं कि मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है.
              इसी राजनीतिक शैली से प्रभावित होके ममता बनर्जी जी भी अब सुधीर चौधरी से पूछ रहीं हैं कि मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है. वर्ष २००८ में मिल्क एंड हनी बैंड का १ गाना आया था जिसका नाम था 'दीदी'. भारत में भी बहुत लोगों ने इसे सुना होगा इसके बोल समझ में नहीं आते बस संगीत और दीदी शब्द सुनके ही हम अपने को संतुष्ट कर लेते थे.बिलकुल इसी समय बंगाल में सिंगुर भूमि अधिग्रहण का मामला अपने चरम पर था और २०११ में इसी मामले का लाभ लेते हुवे ममता बनर्जी जी ने कम्युनिस्ट शासन को सत्ता से हटा दिया. अब इसे संयोग कहें या कुछ और कि 'दीदी' गाना और भारतीय राजनीती की 'दीदी' दोनों ने पहचान बनाई बशर्ते दोनों समझ में न आयीं हो.
       बंगाली मानुष के नाम पर राजनीती करने वाली ममता बनर्जी जी ने अब तक शायद ही ऐसा काम किआ होगा जिससे बंगाल अपने उस बौद्धिक ख्याति को प्राप्त हुआ हो या कोई ऐसी योजना उन्होंने चलाई हो जिससे बंगाली मानुष फिरसे बंगाल को बंगाल बना सके. पर हाँ, उन्होंने मेरे अंगने का शिगूफा जरुर छेड़ कर रखा है.
         ममता बनर्जी जी का मामला मेरे अंगने का समर्थन करने वालों की आँखे जरुर खोलने का काम कर सकता है और उन्हें सवाल पुछने की वजह दे सकता है की आखिर हम किस आधार पर आँगन का निर्धारण करें.अगर आँगन बन भी गया है तो उसे सुन्दर और बेहतरीन बनाये रखने की क्या योजना है उनके पास. मेरा आँगन ये चंद मठाधीश तय करेंगे या मैं खुद करूँगा इसकी समझ मुझमें होनी ही चाहिए वरना 'दीदी' गाने की तरह बिना समझे आप इन मठाधीशों को सुनते रहेंगें. आखिर जब हमारे इजाद किये हुवे शुन्य का इस्तेमाल वो कम्पूटर में कर सकते हैं, हम उनके बनाये सामानों का इश्तेमाल कर सकते हैं तो ये मेरे अंगने का रीमिक्स वर्जन क्यूँ? कुछ का विरोध और कुछ को अंगीकार करना रिमिक्स नहीं है तो और क्या है?
         पर कुछ भी कहिये नोबेल समिति को बॉब डिलन की तरह इस गाने को लिखने वाले को भी नोबल प्राइज से नवाजना चाहिए आखिर इतना पहले ही वैश्वीकरण के अगले चरण के बारे में कौन जान पाया था और दूसरा पुरस्कार ममता जी को भी जिन्होंने बंगाली मानुष की निर्बलता को सामने लाया उन्होंने ये बता दिया की राज्य की पूरी ताकत होते हुवे भी महज रिपोर्टिंग कर देने से बंगाली मानुष खतरे में पड़ सकता है तो बिना ताकत के आप कुछ भी नहीं हैं. जब राज्य ही कमजोर है तो आप आम आदमी की निर्बलता को समझ सकते हैं. शांति का पुरस्कार सेक्युलर मीडिया को देना चाहिए जिसने मौन धारण करके अपने सेक्युलर होने का परिचय दिया.
         ये क्या किसी ने चैनल फिर बदल दिया पर अब वो गाना ख़त्म हो गया है अब नया गाना बज रहा है टीवी पर जिसके बोल हैं 'तुझसे नाराज नहीं ऐ जिंदगी'.          

Thursday 29 December 2016

पूस की रात, प्रेमचंद चाचा की दकियानुशी बात

मेक इन इंडिया का दौर चल रहा है और यहाँ हम खलिहर बैठे कौड़ ताप रहे हैं.राष्ट्रपति जी का कहना है की ७ साल में सबसे कम रोजगार उत्प्पन हुआ है पर जीडीपी महारानी तो कुछ और बता रही हैं.पर मंगरुआ बड़ा खुश है आजकल कहता है रामराज्य आ गया है अब तो राजा साहब कहते ही सारा बात मन जायेंगे.क्या हुआ जो अब वो गली-२ नहीं घूम सकते भैया ये तो डिजिटल जमाना है वो मोबैलिया से जान जायेंगे और जो गलती करेगा उसे वनवास का रास्ता दिखा देंगे तुम तो हो खलिहर कवनो काम नाहीं है.हमने कहा उ सब छोड़ा भैया ठण्डा बड़ा बढ़ गया है  किसानी कैसी चल रही है.ठंढा में गेंहू के खेतवा में पानी चलावे में हालत ख़राब हो जात होगी.मंगरू चचा ने कहा 'बबुआ इ जाड़ा ता आजकल लोगन के कुछ ज्यादा ही बुझात है का पहिले न पड़ो इ जाड़ा पर का करबा हमनी का त हमेशा से खेती किआ हैं न त आदत पड़ गया है.'
                   चचा की बात ने मुझे प्रेमचंद जी के पूस के रात वाली कथा की यद् दिला दी. १ नीद के चक्कर में जब किसान ने पूरा फसल ही गवां दिया. पर ये किसान कब तक नींद में सोयेगा इसका कुछ भी पता नहीं चलता क्यूंकि उसे तो हर रोज सपने दिखाये जाते हैं अब. सो प्रेमचंद जी आप भी शोषण करने वाले ही निकले. कहाँ उदारवाद ने कहा की बदलाव होगा आपने तो बदलाव की प्रक्रिया को रोकने का गुरुमंतर दे दिया. कैसे फसल को चरना है आपने समझा दिया साढ़ और भैसों को. नहीं आ पाये आप भी उस सामंती सोच से बाहर जो शोषण को बढ़ावा देती है, रह गए आप भी दकियानुशी विचार वाले आदमी.
          कोई दरबार नहीं मिला वरना आप भी तो भांट बनने में लग ही गये थे लग रहा है आपको भविष्य का अनुमान हो गया था कि कैसे लेखनी को बेचना है पर खरीदार नहीं मिल पाये शायद आपको. गलती कर दी न गुरु अपनी बुद्धिजीवी मानसिकता से बाहर आ गए होते तो शायद आप भी y सिक्यूरिटी पा गए होते.
          देखिये न हम भी क्या बतिया रहे हैं. हमको तो आपको बताना है कि अब किसान मजे से सोता है और अब उसे अपने फसलों की रखवाली नहीं  करनी पड़ती है. सबकुछ डिजिटल है अब मां समझी जाने वाली भूमि  कैपिटल समझी जाती  है. आपका किसान अब ठण्ड नहीं सहता। नहीं समझे न अरे आजकल डिस्काउंट का जमाना है ठण्ड भी डिस्काउंट दे देती है. आपको तो पता ही नहीं की किसान अब कितना महत्वपूर्ण हो गया है. कल कि ही तो बात है १ पार्टी ये कह के सत्ता में आयी की अगर हम जीते तो न्यूनतम समर्थन मूल्य ५०% बढ़ा देंगे जितने के बाद उन्होंने बताया की अब उन्हें पता चला है की अगर ऐसा हुआ तो बाजार की व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी. मध्यम वर्ग तबाह हो जायेगा।अब तो जान गये न देश की ६०% से ज्यादा किसानी से जुड़े लोग कितने विकसित हो गए हैं.
      आपका नींद वाला फार्मूला काम कर गया है किसान तो अब बस अछे दिनों के सपने देखते रहता है और हाँ आपकी याद में जो घर छोड़ा गया था वो गिर गया है और १ आदमी भी मर गया है पर किसी ने कोई सवाल नहीं किया क्यूंकि अब सब जान गये हैं की जब सेना का जवान मर सकता है तो आम इन्सान क्यों नहीं.
         बिग बिलियन सेल आजकल खूब चल रही है तो क्या कहते हैं बेच दू मैं भी अपनी अंतरात्मा या आपकी तरह ही कोई फसल चरने का फार्मूला दे दू.  
  चलिये कौड़ा ठंढा गया है हम भी चल के बिग बिलियन सेल वाला जैकेटवा पहन लें.