Saturday 7 January 2017

अपराजिता

अपराजिता का मतलब होता है जो कभी भी पराजित न हुआ हो या जिसे कभी भी कोई जीत नहीं पाया हो. हिन्दू धर्म में इसे शक्ति के रूप में देखा जाता है और देवी के रूप में इनकी आराधना की जाती है. अगर हम हिंदी साहित्य की बात करें तो यह शब्द नारी को संबोधित करने के लिये इश्तेमाल किया जाता है. पर जब हम इस शब्द पर गौर फरमाते हैं तो पाते हैं की ये शब्द अपने आप में इतिहास को समेटे है या यूँ कहें की ये शब्द पुरे इतिहास का संक्षिप्त रूप है.इस शब्द ने अपने अन्दर नारी समाज के पुरे इतिहास को छुपा कर रखा है. आदम काल से लेकर अब तक का सारा इतिहास इस १ शब्द के अन्दर ही छुपा हुआ है जिसके अन्दर दमन, शोषण,त्याग, द्वेष,प्रेम,ममता,सृजन,क्रंदन,कल्पना,समर्पण, इत्यादि की मर्मस्पर्शी कथाएं छुपीं हुई हैं. कभी देखिएगा गौर से न आप भी अपने अगल-बगल आपको पूरा इतिहास १ दृश्य में ना मिला तो कहियेगा.
            आग की खोज के बाद  शिकार पर गए उस पुरुष के घर की रक्षा करती हुई ये अपराजिता जो आग से पहले शिकार में साथ जाती थी, उस कल से लेकर बोझ ढोने वाले उस क्रेन के अविष्कार तक आप इस अपराजिता को ही तो पायेंगे. हर नईं खोज इस अपराजिता को पीछे धकेलने का कहीं ना कही प्रयास तो करती ही है जैसे क्रेन की खोज के बाद उसका संचालन पुरुष को दे दिया जाता है और नारी को समझा दिया जाता है की तुम कमजोर हो इसलिए अपनी  ताकत का इश्तेमाल करके बोझ उठाया करो. बात हाश्याद्पद तो है पर है सत्य यकीं नहीं होता तो पलट कर देख लीजिये इतिहास के पन्ने ये पल न मिलें तो कहियेगा. जब धरती से डायनासौर ख़त्म हुवे तो कहा जाता है की किसी उल्का पिंड के गिरने के बाद उनकी प्रजाति ख़त्म हो गई. पर नारी अब भी अपराजित है सामाजिक बंधनों रूपी उल्का पिंडों के बावजूद.
        उल्का पिंडों के बारे में कहा जाता है की ये धरती का हिस्सा नहीं हैं बाहर से आती हैं और इस बाहरी वस्तु ने पूरी प्रजाति को ही खत्म कर दिया. बिलकुल इन्हीं उल्का पिंडों की तरह ये सामाजिक बंधन भी तो बाहरी ही हैं ना, आखिर जब नारी और पुरुष धरती पर आये होंगें तब तो ये नियम नहीं होंगें ना. पर इन नियम रूपी उल्का पिंडों से भी कभी नहीं पराजित हुई नारी और आज भी नदी के जल की तरह निरंतर प्रवाहमान है. जाने कितनी सभ्यताएं आयीं और चलीं गयीं पर १ चीज जो सतत रही वो यह की उन सभ्य्तायों के बीच में कहीं गुम सी थी अपराजिता फिर भी अपने आपको उसने लगातार उभारना जरी रखा और विषमताओं के बावजूद अपना अस्तित्व बना के रखा.हर सभ्यता का पतन हुवा पर १ नारी ही थी जिसने अपने आपको सतत विकास की प्रक्रिया में लगाये रखा और दुसरे के बनाये हुवे नियमों में ढलते हुवे खुद को विकसीत रखना जारी रखा.
                       पर जब २१वीं सदी में भी नारी को संघर्ष करना पड़ता है तो बड़ा दुःख होता है और जब वे प्रताड़ित होती हैं तो आक्रोश पैदा होता है. जाने कब बदलेगी ये मानसिकता और नारीओं के योगदान को समाज समझ पायेगा. आखिर वही हमेशा त्याग क्यूँ करे,वही क्यों प्रताड़ित हो,वही अपनी अग्नि परीक्षा क्यूँ दे, वही अपने कामों का हिसाब क्यों दे. क्या पुरुष समाज को ये दुनिया को नहीं बताना चाहिए की उन्होंने अब तक क्या दिया है इस धरती को. इतनी सभ्यताएं ख़त्म हो गई और सबको पुरुषों ने अपने हिसाब से चलाया था. आज भी गरीबी,आतंकवाद,अपराध,असमानता इत्यादि जैसे मुद्दे हैं तो क्या इसका जवाब पुरुषों को नहीं देना चाहिए.
              जापान ने कोरिया को द्वीतीय विश्व युद्ध की क्षत्तीपूर्ति की राशी का भुगतान किया था और अभी भी कुछ चीजों को लेकर करता है. कल्पना करियेगा अगर महिलाओं ने अपने अधिकारों के हनन को लेकर जिस दिन इस पुरुष समाज से जुर्माना मांग लिया तो क्या ये समाज दे पायेगा. आखिर पुरुष को यह क्यूँ नहीं समझ में आता है की अगर उसे सभ्यता का विकास करना है तो उसे नारी से सीखना होगा. उसे अपने सामन्ती और दम्भी मानसिकता से बाहर आना होगा. उसे समझना होगा की ताकत का मतलब दूसरों के वश्तुओं को हडपना या उनपर अपना प्रभुत्वा दिखाना नहीं होता है वरन उनका सम्मान करना और उनके विकास में मदद करना होता है. अगर ये बात समाज समझ जाये तो निर्भया और बेंगलोर जैसी घटना नहीं होंगीं.
        आखिर कब तक ये अपराजितायें अपना संघर्ष जरी रखेंगी.१ बात याद रखियेगा हर संघर्ष के बाद १ क्रांति हुई है और मुझे नहीं पता की इतिहास में नारी ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये कभी क्रांति की हो. पर कब तक नहीं होगी ये क्रांति जब आप प्रताड़ना रूपी बांध बनायेंगे तो जल रूपी नारी स्वाभाव वो बांध तोड़ेगा जरुर उस दिन क्या-२ तबाह होगा यह देखना रोचक होगा. 

Tuesday 3 January 2017

मेरे अंगने में

नये साल  का आगमन हो चुका है पर अब इस नये साल में वो पहले वाली बात कहाँ रही है जब हमलोग दूरदर्शन नये-२ कार्यक्रम का इंतजार करते रहते थे.पर अब तो लाइव टीवी का जमाना है,आई पैड का दौर है.फ्री डाटा का दौर भी आ चुका है बस बैठे-२ डाटा से दुनिया से जुड़ जाइये बशर्ते आपके मोबाइल की बैटरी चार्ज हो. आपका पेट चार्ज हो या ना हो पर आजके ज़माने में मोबाइल का चार्ज रहना बेहद जरुरी हो गया है. खैर वो सब छोडिये मुद्दे पर आते हैं आज तो कमाल ही हो गया जब टीवी पर सुबह-२ ही पुराने गाने आने लगे और अमिताभ जी के फिल्म का गाना मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है बजने लगा. मेरी तो आत्मा ही प्रसन्न हो उठी तभी किसी ने रिमोट से टीवी का चैनल चेंज कर दिया और टीवी पर से जानकारी मिली की जी न्यूज़ के पत्रकार सुधीर चौधरी के ऊपर पश्चिम बंगाल सरकार ने एफ आई आर दर्ज कराई है दंगो के रिपोर्टिंग के लिये. 
           पुनर्जागरण के ध्वजवाहक बंगाल से जब ऐसी खबर आती है तो बड़ा ही दुःख होता है. ये वही बंगाल है जहाँ से राजाराममोहन राय ने सती प्रथा के विरोध में आवाज उठाई थी, ये वहीँ बंगाल है जहाँ से विवेकानंद जी ने बाहर निकल कर विश्व को हमारे सनातन धर्म का सच्चा साक्षात्कार कराया, ये वही बंगाल है जहाँ से जगदीश चन्द्र बसु जैसे शख्स ने बताया की पौधों में भी जान होती है पर इसी बंगाल में ममता बनर्जी जी शायद भूल गयी हैं की जिनमें जान होती है वो संवाद जरुर करते हैं और मानव समाज में संवाद के लिये अभिव्यक्ति की आजादी होना अत्ति आवश्यक है वरना संवाद अर्थहीन हो जाता है.
         ममता बनर्जी जी शायद संविधान को ही भूल गयीं हैं या वह जानबूझकर ऐसा ढोंग कर रही हैं.वह भारत के संघीय ढांचे से इतर कोई नयी व्यवस्था का जन्म करना चाहती हैं शायद इसीलिए उन्हें मिलिट्री की ड्रिल सत्ता परिवर्तन की साजिश लगती है और अपने पार्टी के नेताओं पर लगने वाले आरोप केंद्र की साजिश. ममता जी शायद कहना चाहतीं हैं की मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है.
          राजनीती की दुनिया में अब ये १ नया वाक्य बनके उभरा है जिसमें अब सब पुछ रहें हैं कि मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है.आप राष्ट्रवादीयों की नई फ़ौज को हि देख लीजिये. भारत में ही इनका ग्रेगरियन कैलेंडर आधारित नववर्ष का विरोध यही तो कहता है की मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है. आप चाहें तो अमेरिका को ही देख लें, वहां के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का प्रवासियो के प्रति बयान भी तो यही दर्शाता है. चाहे मामला ब्रेक्सिट का हो या मामला जर्मनी में सीरिया के लोगों का हो हर जगह अब यही बोल चल रहे हैं कि मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है.
              इसी राजनीतिक शैली से प्रभावित होके ममता बनर्जी जी भी अब सुधीर चौधरी से पूछ रहीं हैं कि मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है. वर्ष २००८ में मिल्क एंड हनी बैंड का १ गाना आया था जिसका नाम था 'दीदी'. भारत में भी बहुत लोगों ने इसे सुना होगा इसके बोल समझ में नहीं आते बस संगीत और दीदी शब्द सुनके ही हम अपने को संतुष्ट कर लेते थे.बिलकुल इसी समय बंगाल में सिंगुर भूमि अधिग्रहण का मामला अपने चरम पर था और २०११ में इसी मामले का लाभ लेते हुवे ममता बनर्जी जी ने कम्युनिस्ट शासन को सत्ता से हटा दिया. अब इसे संयोग कहें या कुछ और कि 'दीदी' गाना और भारतीय राजनीती की 'दीदी' दोनों ने पहचान बनाई बशर्ते दोनों समझ में न आयीं हो.
       बंगाली मानुष के नाम पर राजनीती करने वाली ममता बनर्जी जी ने अब तक शायद ही ऐसा काम किआ होगा जिससे बंगाल अपने उस बौद्धिक ख्याति को प्राप्त हुआ हो या कोई ऐसी योजना उन्होंने चलाई हो जिससे बंगाली मानुष फिरसे बंगाल को बंगाल बना सके. पर हाँ, उन्होंने मेरे अंगने का शिगूफा जरुर छेड़ कर रखा है.
         ममता बनर्जी जी का मामला मेरे अंगने का समर्थन करने वालों की आँखे जरुर खोलने का काम कर सकता है और उन्हें सवाल पुछने की वजह दे सकता है की आखिर हम किस आधार पर आँगन का निर्धारण करें.अगर आँगन बन भी गया है तो उसे सुन्दर और बेहतरीन बनाये रखने की क्या योजना है उनके पास. मेरा आँगन ये चंद मठाधीश तय करेंगे या मैं खुद करूँगा इसकी समझ मुझमें होनी ही चाहिए वरना 'दीदी' गाने की तरह बिना समझे आप इन मठाधीशों को सुनते रहेंगें. आखिर जब हमारे इजाद किये हुवे शुन्य का इस्तेमाल वो कम्पूटर में कर सकते हैं, हम उनके बनाये सामानों का इश्तेमाल कर सकते हैं तो ये मेरे अंगने का रीमिक्स वर्जन क्यूँ? कुछ का विरोध और कुछ को अंगीकार करना रिमिक्स नहीं है तो और क्या है?
         पर कुछ भी कहिये नोबेल समिति को बॉब डिलन की तरह इस गाने को लिखने वाले को भी नोबल प्राइज से नवाजना चाहिए आखिर इतना पहले ही वैश्वीकरण के अगले चरण के बारे में कौन जान पाया था और दूसरा पुरस्कार ममता जी को भी जिन्होंने बंगाली मानुष की निर्बलता को सामने लाया उन्होंने ये बता दिया की राज्य की पूरी ताकत होते हुवे भी महज रिपोर्टिंग कर देने से बंगाली मानुष खतरे में पड़ सकता है तो बिना ताकत के आप कुछ भी नहीं हैं. जब राज्य ही कमजोर है तो आप आम आदमी की निर्बलता को समझ सकते हैं. शांति का पुरस्कार सेक्युलर मीडिया को देना चाहिए जिसने मौन धारण करके अपने सेक्युलर होने का परिचय दिया.
         ये क्या किसी ने चैनल फिर बदल दिया पर अब वो गाना ख़त्म हो गया है अब नया गाना बज रहा है टीवी पर जिसके बोल हैं 'तुझसे नाराज नहीं ऐ जिंदगी'.