सौन्दर्यबोध की इस दुनिया में
कैसे देख पाओगे किसी के अंदाज को
जब धुन लगी हो खुद को धुनने की
जाकर बैठो कभी तो किसी उपवन में
झाँकों अपनी सीमा से परे की दुनिया में
है सतत जो गतिशील अपने ही रफ़्तार में
धुनने के साथ गुनते भी रहती है अपने गीत
आत्मसाक्षात्कार के ऐसे पल में
जा बैठा प्रकृति की गोद में
जब भास्कर के प्रथम किरणों के स्पर्श से
होते हैं सब स्पंदित ,खोलते हैं चछु
पवन की मद्धम बयारों का स्पर्श
कराता है सवारी अपनी ही दुनिया की
नहीं मुमकिन जो अपनी धुन में
नवीन अहसास के प्रकाश पुंज में
देखा उस अल्हड़ तितली को
अपनी ही धुन में गुनते हुवे
पुष्प गुच्छों के बीच में पंखों को फैलाये
लताओं से कभी इधर तो कभी उधर टकराए
फिकर ही न हो खुद का
इस पल में जीने में उड़ती हुई
देखा उसे तो जाना जीवन में
खुद को जीना है जरूरी खुद को
दुनिया तो लगी है अपने हिसाब से
बांधने को पहचानों के दायरे में
जैसे बांध दिया है तितली को
सौन्दर्य के दायरे में ,छिन ली है
उससे उसकी पहचान को
प्रतिपल परिभाषित इस जगत में
भला कैसे दिखेगी तुम्हें उसकी
पुष्पों के पीछे की धमाचौकड़ी
भास्कर के साथ उठ कर भ्रमरों ,
मधुमक्खियों संग की अठखेलियाँ
इस प्रकृति को सहेजने का अंदाज
देख कर भी कर दोगे अनसुना
लालच के इस सागर में
तुमने देखा है अब तक
उसके सुन्दर,रंगीन पंखों को
पुष्पों से रस लेने के अंदाज में
हो गुम इतने की भूल ही गये हो
किरण संग कड़ों के संगम ने लायी है
चमक कई बार उस अल्हड़ तितली में
मेरे अंतर्मन के कोने में
कहती है ये उठती आवाज
है परिभाषा से परे भी कुछ
जीवन के हैं रंग कई
जीने के अंदाज हैं रसमयी
है चेहरे पर मुस्कान नई
आ बैठी है हथेली पर वो अल्हड़ तितली
बहुत सुदर्शन
ReplyDeleteNice one bro
ReplyDeleteअतिसुन्दर मित्र।।
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